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Tuesday, July 19, 2011

गुफ्तगू ...


तुम भी चुप थे और मिरे लब भी न हिल सके

आंखों ने इसी बीच में कुछ गुफ्तगू कर ली ।।


- ’जय’

Thursday, February 17, 2011

दुश्मनों की दोस्ती है अब अहले वतन के साथ ...


दुश्मनों की दोस्ती है अब अहले वतन के साथ

है अब खिजाँ चमन मे नये पैराहन के साथ

सर पर हवाए जुल्म चले सौ जतन के साथ

अपनी कुलाह कज है उसी बांकपन के साथ

किसने कहा कि टूट गया खंज़रे फिरंग

सीने पे जख्मे नौ भी है दागे कुहन के साथ

झोंके जो लग रहे हैं नसीमे बहार के

जुम्बिश में है कफस भी असीरे चमन के साथ

मजरूह काफले कि मेरे दास्ताँ ये है

रहबर ने मिल के लूट लिया राहजन के साथ

मजरूह सुल्तानपुरी

Tuesday, February 15, 2011

अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं ...


अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं

मेरी याद से जंग फ़रमा रहे हैं

इलाही मेरे दोस्त हों ख़ैरियत से

ये क्यूँ घर में पत्थर नहीं आ रहे हैं

बहुत ख़ुश हैं गुस्ताख़ियों पर हमारी

बज़ाहिर जो बरहम नज़र आ रहे हैं

ये कैसी हवा-ए-तरक्की चली है

दीये तो दीये दिल बुझे जा रहे हैं

बहिश्ते-तसव्वुर के जलवे हैं मैं हूँ

जुदाई सलामत मज़े आ रहे हैं

बहारों में भी मय से परहेज़ तौबा

'ख़ुमार' आप काफ़िर हुए जा रहे हैं


ख़ुमार बाराबंकवी

Thursday, February 10, 2011

तेरे जाने के बाद...


तेरी अहमियत, ज़रुरत,मोहब्बत और जज्बात

सबका एहसास हुआ आज तेरे जाने के बाद
||


जयकरन सिंह भदौरिया 'जय'

Sunday, February 6, 2011

खूब समझते होंगे ...


वो
गजल वालों का उस्लूब* समझते होंगे
चाँद कहते हैं किसे खूब समझते होंगे

इतनी मिलती है मेरी ग़ज़लों से सूरत तेरी
लोग तुझको मेरा महबूब समझते होंगे

मैं समझता था मोहब्बत की ज़बाँ खुशबू है
फूल से लोग इसे खूब समझते होंगे

भूल कर अपना ज़माना ये ज़माने वाले
आज के प्यार को मायूब** समझते होंगे

* शैली
** बुरा



डॉ. बशीर बद्र

Monday, January 17, 2011

प्रत्याशा...


आज निकल जाने को बिकल मन

यह तम गहन संकीर्ण रहन

निशा ध्रुव यह नरक दिशा

मन में सुचिता का वसन रहन




नव रागिनी छेड़कर नव बाट पर

नव सृष्टी कर नव ललाट पर

तन मन की शक्ति अखिल, साथ कर

चिर प्यास बुझाने नव घाट पर


पंकज बोरा
www.utkarshnav.blogspot.com


Friday, November 12, 2010

मन का भी होता है... मन


स्वस्थ तन


और


स्वस्थ मन


पर्याप्त धन


भावनाओं की अगन


और


वेदनाओं की चुभन


ख्वाहिशों की भीड़ में


ज़िन्दगी का सूनापन


सुखद जीवन


विकल मन


क्यूँ ?


कभी सोचा नहीं


कि


मन का भी होता है... मन ||


जयकरन सिंह भदौरिया 'जय'

Wednesday, November 10, 2010

किधर जाऊं मैं...?

इधर जुल्फ आशिक की, उधर माँ का आँचल

कहाँ सर छुपाऊं ? किधर जाऊं मैं ?



जयकरन सिंह भदौरिया 'जय'

Saturday, October 23, 2010

मुझे डूबता भी देख...

तुम्हीं ने कहा था कि, मैं कश्ती पे बोझ हूँ |

अब आँखों को न कर बंद, मुझे डूबता भी देख ||

चला गया कोई ...


न हाथ पकड़ सके और न थाम सके दामन ,


बहुत करीब से उठकर चला गया कोई ||