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Saturday, April 17, 2010

ख्वाहिश ...


वो नींद की हल्की साज़िश थी ?


या दिल की कोई ख्वाहिश थी ?


जब मैंने तुमको देखा था


जब मैंने तुमको जाना था


तुम दूर हो कर भी पास हुए


इन आँखों का एक ख्वाब हुए


तुमसे जब-जब मैं मिलती हूँ


तो हर दम सोचा करती हूँ


कोई ख्वाब हो या एक आस हो तुम


मेरे होने का एहसास हो तुम


सच में गर तुमसे कह दूं मैं


शायद अब सबसे खास हो तुम


तुम न जाना अब दूर कहीं


मेरे बनके रहना सदा यूँही


एक खुशबु हर सू फैली है


रंगों में अब रंगीनी है


शबनम की बूँदें पत्तों पर


गिर कर मुझसे ये कहती हैं


वो नींद की हल्की साज़िश थी ?


या दिल की कोई ख्वाहिश थी ?



शीबा परवीन

1 टिप्पणियाँ:

शागिर्द - ए - रेख्ता said...

मुशायरे में आपका स्वागत है मोहतरमा... |
बहुत उम्दा लिखा है आपने | हर लफ्ज़ इतना सरल, स्पष्ट और बेहतरीन है कि सीधे मन को छूता है | सरल शब्दों में भी इतनी अच्छी रचना कही जा सकती है ... ये आज आपसे सीखा मैंने ...!
धन्यवाद सहित हार्दिक बधाई | बनी रहिये ... मुशायरे में आप जैसों की ही जरुरत है | पुनश्च स्वागत एवं बधाई |