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Wednesday, July 28, 2010

माँ...


इस कोने से लेकर

उस कोने तक

पूरे घर को

दिन में कई बार

अपने हाथों से

सहलाने वाली माँ

थमकर बैठती हो जब

तब गेहूं बीनने के बहाने

सींचती हो अपने हाथों से

दाने - दाने में एक मिठास



उलझे - उलझे बालों वाली माँ ,

कैसे कर लेती हो ,

इतनी सुलझी - सुलझी बातें ?

कि कई बार

निरुत्तर हो जाने के बाद भी

कितना सुकून से भरा - भरा

दिखाई देता है बाबूजी का चेहरा



माँ , सारी रात तुम

बाबूजी की आहटों पर

कान लगाए - लगाए

ऊँघते - ऊँघते ही

कैसे कर लेती हो

नींद लेने का उपक्रम ?

और सुबह फिर

खिल - खिल जाती हो

किसी ताजातरीन

फूल की तरह



माँ, सचमुच कितने

आह्लादित होते होंगे बाबूजी

दादी के सामने

तुम्हें इस पकी उम्र में भी

लम्बा - सा घूँघट निकालकर

किसी नववधू की तरह

सकुचाते हुए देखकर



माँ, ओस की बूँद - सी तुम

कितनी भली लगती हो

परिवार के पात पर

घर के आँगन में लगा

तुलसी का थान

शाद तुम्हे देख - देख कर ही

फल - फूल रहा है



- आचार्य संजय वरुण

Sunday, July 25, 2010

इसे क्या नाम दूं ...?

भोर की


सुरमई

लालिमा सी

मुस्काती

थी वो

नभ में

विचरण

करते

उन्मुक्त

खगों सी

खिलखिलाती

थी वो

और सांझ के

सिंदूरी रंग के

झुरमुट में

सो जाती

थी वो

वो थी

उसकी

पावन

निश्छल

मधुर

मनभावन

मुस्कान

हाँ --एक नवजात

शिशु की

अबोध

चित्ताकर्षक

पवित्र मुस्कान


- वंदना गुप्ता

vandana-zindagi.blogspot.com

Thursday, July 15, 2010

ज़िन्दगी के लिये...


ज़िन्दगी के लिये इतना नहीं माँगा करते

मांगने वाले से क्या-क्या नहीं माँगा करते


मालिक-ऐ-खुल्द से दुनिया नहीं माँगा करते

यार दरियाओं से कतरा नहीं माँगा करते


हम वो राही हैं लिये फिरते हैं सर पर सूरज

हम कभी पेड़ों से साया नहीं माँगा करते


मैने अल्लाह से बस ख़ाक-ऐ-मदीना मांगी

लोग अपने लिये क्या-क्या नहीं माँगा करते


बेटियों के भी लिये हाथ उठाओ मंज़र

सिर्फ अल्लाह से बेटा नहीं माँगा करते


- मंज़र भोपाली

बदहवासी...




किधर को जायेंगे अहल - ऐ - सफ़र नहीं मालूम



वो बदहवासी है अपना ही घर नहीं मालूम





मेरे खुदा मुझे तौकीद दे मोहब्बत की



दिलों को जीतने वाला हुनर नहीं मालूम





हम अपने घर में भी महफूज़ रह नहीं सकते



के हमको नीयत - ऐ - दीवार - ओ - दर नहीं मालूम





हमेशा टूट के माँ बाप की करो खिदमत



हैं कितने रोज़ ये बूढ़े सज़र नहीं मालूम

- मंज़र भोपाली

इत्तेफ्फाक या साज़िश ...



हमारी जेब से जब भी कलम निकलता है


सियाह शब् के यजीदों का दम निकलता है

तुम्हारे वादों का कद भी तुम्हारे जैसा है

कभी जो नाप के देखो तो कम निकलता है



ये इत्तेफ्फाक है मंज़र या कोई साज़िश है


हमेशा क्यूँ मेरे घर से ही बम निकलता है



- मंज़र भोपाली

Monday, July 12, 2010

अहल - ऐ -सफ़र ...


किधर को जायेंगे , अहल - ऐ -सफ़र नहीं मालूम

वो बदहवासी है, अपना ही घर नहीं मालूम


- मंज़र भोपाली

Saturday, July 10, 2010

ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है...



मत कहो आकाश में कुहरा घना है
ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है


सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से
क्या करोगे सूर्य को क्या देखना है ?


इस सड़क पर इस कदर कीचड बिछी है
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है


पक्ष और प्रतिपक्ष संसद में मुखर है
बात इतनी है की कोई पुल बना है


रक्त वर्षों से खून में खौलता है
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है


हो गई है घाट पे पूरी व्यवस्था
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है


दोस्तों अब मंच पर सुविधा नहीं
आजकल नेपथ्य में सम्भावना है



- दुष्यंत कुमार