तुम भी चुप थे और मिरे लब भी न हिल सके
आंखों ने इसी बीच में कुछ गुफ्तगू कर ली ।।
- ’जय’
स्वस्थ तन
और
स्वस्थ मन
पर्याप्त धन
भावनाओं की अगन
और
वेदनाओं की चुभन
ख्वाहिशों की भीड़ में
ज़िन्दगी का सूनापन
सुखद जीवन
विकल मन
क्यूँ ?
कभी सोचा नहीं
कि
मन का भी होता है... मन ||
जयकरन सिंह भदौरिया 'जय'