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Tuesday, February 15, 2011

अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं ...


अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं

मेरी याद से जंग फ़रमा रहे हैं

इलाही मेरे दोस्त हों ख़ैरियत से

ये क्यूँ घर में पत्थर नहीं आ रहे हैं

बहुत ख़ुश हैं गुस्ताख़ियों पर हमारी

बज़ाहिर जो बरहम नज़र आ रहे हैं

ये कैसी हवा-ए-तरक्की चली है

दीये तो दीये दिल बुझे जा रहे हैं

बहिश्ते-तसव्वुर के जलवे हैं मैं हूँ

जुदाई सलामत मज़े आ रहे हैं

बहारों में भी मय से परहेज़ तौबा

'ख़ुमार' आप काफ़िर हुए जा रहे हैं


ख़ुमार बाराबंकवी

5 टिप्पणियाँ:

vandana gupta said...

आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (17-2-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

http://charchamanch.blogspot.com/

रंजना said...

बहुत ही सुन्दर रचना पढवाई...

आभार..

जयकृष्ण राय तुषार said...

भाई आपका ब्लॉग सुन्दर है ग़ज़ल भी सुन्दर है शुभकामनाएं |मैं डॉ भदौरिया काmob no e-mail se bhej dunga

Anjana Dayal de Prewitt (Gudia) said...

अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं
मेरी याद से जंग फ़रमा रहे हैं

bahut badiya!

Samant bhatt said...

ये कैसी हवा-ए-तरक्की चली है 
दीये तो दीये दिल बुझे जा रहे हैं 

बहिश्ते-तसव्वुर के जलवे हैं मैं हूँ 
जुदाई सलामत मज़े आ रहे हैं