Pages

Friday, November 12, 2010

मन का भी होता है... मन


स्वस्थ तन


और


स्वस्थ मन


पर्याप्त धन


भावनाओं की अगन


और


वेदनाओं की चुभन


ख्वाहिशों की भीड़ में


ज़िन्दगी का सूनापन


सुखद जीवन


विकल मन


क्यूँ ?


कभी सोचा नहीं


कि


मन का भी होता है... मन ||


जयकरन सिंह भदौरिया 'जय'

Wednesday, November 10, 2010

किधर जाऊं मैं...?

इधर जुल्फ आशिक की, उधर माँ का आँचल

कहाँ सर छुपाऊं ? किधर जाऊं मैं ?



जयकरन सिंह भदौरिया 'जय'

Saturday, October 23, 2010

मुझे डूबता भी देख...

तुम्हीं ने कहा था कि, मैं कश्ती पे बोझ हूँ |

अब आँखों को न कर बंद, मुझे डूबता भी देख ||

चला गया कोई ...


न हाथ पकड़ सके और न थाम सके दामन ,


बहुत करीब से उठकर चला गया कोई ||

उन अश्कों की खातिर...

बहुत रोये हैं उन अश्कों की खातिर ,

जो निकलते हैं ख़ुशी की इन्तेहाँ पे ||

खुदा की याद ...


रहने दो मुझे फ़साने से भरी दुनिया में

मस्जिद से ज्यादा खुदा
की याद यहाँ आती है

वक़्त-ए-दफ़न...


मुट्ठियों में राख लेकर आए दोस्त वक़्त-ए-दफ़न,


ज़िन्दगी भर की मोहब्बत का सिला देने ||

आंसू...


एक आंसू कह गया सब हाल दिल का,

मैं सोचता था ये ज़ालिम बेजुबान है

मैं तो यादों के चरागों को जलाने में रहा...


मैं तो यादों के चरागों को जलाने में रहा

दिल कि दहलीज़ को अश्कों से सजाने में रहा

मुड़ गए वो तो सिक्को की खनक सुनकर

मैं गरीबी की लकीरों को मिटाने में रहा

हम रोये ही नहीं...

पलकों के किनारे जो हमने भिगोये नहीं

वो सोचते हैं कि हम रोये ही नहीं

वो पूछते हैं कि ख्वाबों में किसे देखते हो ?

और हम हैं कि इक उमर से सोये ही नहीं

Thursday, October 21, 2010

कश्मीर ...

फलों की नज़र-नवाज़ रंगत देखी

मखलूक की दिल-गुदाज़ हालत देखी

कुदरत का करिश्मा नज़र आया कश्मीर

दोजख में समोई हुई जन्नत देखी


*****


इस बाग में जो कली नज़र आती है

तस्वीर-ए-फ़सुर्दगी नज़र आती है

कश्मीर में हर हसीन सूरत 'फानी'

मिटटी में मिली हुई नज़र आती है


- फानी बदांयुनी

Saturday, August 21, 2010

पत्थर हूँ न ...

पत्थर हूँ ना
खण्ड- खण्ड
होना मंजूर
पर पिघलना
मंजूर नहीं

स्थिर , अटल
रहना मंजूर
पर श्वास , गति
लय मंजूर नहीं

पत्थर हूँ न
पत्थर - सा
ही रहूँगा
अच्छा है
पत्थर हूँ
कम से कम
किसी दर्द
आस , विश्वास
का अहसास
तो नहीं
कहीं कोई
जज़्बात तो नहीं
किसी गम में
डूबा तो नहीं
किसी के लिए
रोया तो नहीं
किसी को धोखा
दिया तो नहीं

अच्छा है
पत्थर हूँ
वरना
मानव
बन गया होता
और स्पन्दनहीन बन
मानव का ही
रक्त चूस गया होता

अच्छा है
पत्थर हूँ
जब स्पन्दनहीन
ही बनना है
संवेदनहीन
ही रहना है
मानवीयता से
बचना है
अपनों पर ही
शब्दों के
पत्थरों से
वार करना है
मानव बनकर भी
पत्थर ही
बनना है
तो फिर
अच्छा है
पत्थर हूँ मैं

- वंदना गुप्ता
vandana-zindagi.blogspot.com

Tuesday, August 10, 2010

यह है हिन्दुस्तान हमारा , प्यारा हिन्दुस्तान ...

जीना है दुश्वार यहाँ पर
मरना है आसान
यह है हिन्दुस्तान हमारा , प्यारा हिन्दुस्तान

भाषाएँ भी हुयी सियासी, गुंडों का हथियार
तुलसी - मीर - कबीर की कीमत, दो पैसे में चार

फुटपाथों पर भटक रहे हैं, ग़ालिब और रसखान
यह है हिन्दुस्तान हमारा , प्यारा हिन्दुस्तान


बहरे बैठे सुने दादरा , गूंगे गीत सुनाये
पागल सबकी करे पैरवी , अंधे चित्र बनाये

चोर उचक्कों का होता है, रोज़ यहाँ सम्मान
यह है हिन्दुस्तान हमारा , प्यारा हिन्दुस्तान


फूलों जैसे होठों पर भी, ज़हर भरी नफरत है
बिजली के खम्भों पर पीली, और हरी नफरत है

लाल रंग में डूब गए हैं सब खाकी के थान
यह है हिन्दुस्तान हमारा , प्यारा हिन्दुस्तान


सबसे ऊँचे लोग हैं वो जो कुर्सी के बन्दे हैं
कैसा मंदिर कैसी नस्जिद सब इनके धंधे हैं

ठोकर में ईमान है इनकी जेबों में भगवान
यह है हिन्दुस्तान हमारा , प्यारा हिन्दुस्तान


नोटों की पटरी पर चलती है वोटों की रेल
बी ए पास मिलें चपरासी मंत्री चौथी फेल

दीवारों पर यहाँ लिखा है समय बड़ा बलवान
यह है हिन्दुस्तान हमारा , प्यारा हिन्दुस्तान

जीना है दुश्वार यहाँ पर
मरना है आसान
यह है हिन्दुस्तान हमारा , प्यारा हिन्दुस्तान


- अंजुम रहबर

Tuesday, August 3, 2010

मोहब्बतों को सलीका ...


मोहब्बतों को सलीका सिखा दिया मैंने

तेरे बगैर भी जी कर दिखा दिया मैंने



बिछड़ना - मिलना तो किस्मत की बात है लेकिन

दुआएं दे तुझे शायर बना दिया मैंने



जो तेरी याद दिलाता था चहचहाता था

मुंडेर से वो परिंदा उड़ा दिया मैंने



जहाँ सजा के मै रखती थी तेरी तस्वीरें

अब उस मकान में ताला लगा दिया मैंने



ये मेरे शेर नहीं मेरे जख्म हैं अंजुम

ग़ज़ल के नाम पे क्या - क्या सुना दिया मैंने



- अंजुम रहबर

Wednesday, July 28, 2010

माँ...


इस कोने से लेकर

उस कोने तक

पूरे घर को

दिन में कई बार

अपने हाथों से

सहलाने वाली माँ

थमकर बैठती हो जब

तब गेहूं बीनने के बहाने

सींचती हो अपने हाथों से

दाने - दाने में एक मिठास



उलझे - उलझे बालों वाली माँ ,

कैसे कर लेती हो ,

इतनी सुलझी - सुलझी बातें ?

कि कई बार

निरुत्तर हो जाने के बाद भी

कितना सुकून से भरा - भरा

दिखाई देता है बाबूजी का चेहरा



माँ , सारी रात तुम

बाबूजी की आहटों पर

कान लगाए - लगाए

ऊँघते - ऊँघते ही

कैसे कर लेती हो

नींद लेने का उपक्रम ?

और सुबह फिर

खिल - खिल जाती हो

किसी ताजातरीन

फूल की तरह



माँ, सचमुच कितने

आह्लादित होते होंगे बाबूजी

दादी के सामने

तुम्हें इस पकी उम्र में भी

लम्बा - सा घूँघट निकालकर

किसी नववधू की तरह

सकुचाते हुए देखकर



माँ, ओस की बूँद - सी तुम

कितनी भली लगती हो

परिवार के पात पर

घर के आँगन में लगा

तुलसी का थान

शाद तुम्हे देख - देख कर ही

फल - फूल रहा है



- आचार्य संजय वरुण

Sunday, July 25, 2010

इसे क्या नाम दूं ...?

भोर की


सुरमई

लालिमा सी

मुस्काती

थी वो

नभ में

विचरण

करते

उन्मुक्त

खगों सी

खिलखिलाती

थी वो

और सांझ के

सिंदूरी रंग के

झुरमुट में

सो जाती

थी वो

वो थी

उसकी

पावन

निश्छल

मधुर

मनभावन

मुस्कान

हाँ --एक नवजात

शिशु की

अबोध

चित्ताकर्षक

पवित्र मुस्कान


- वंदना गुप्ता

vandana-zindagi.blogspot.com

Thursday, July 15, 2010

ज़िन्दगी के लिये...


ज़िन्दगी के लिये इतना नहीं माँगा करते

मांगने वाले से क्या-क्या नहीं माँगा करते


मालिक-ऐ-खुल्द से दुनिया नहीं माँगा करते

यार दरियाओं से कतरा नहीं माँगा करते


हम वो राही हैं लिये फिरते हैं सर पर सूरज

हम कभी पेड़ों से साया नहीं माँगा करते


मैने अल्लाह से बस ख़ाक-ऐ-मदीना मांगी

लोग अपने लिये क्या-क्या नहीं माँगा करते


बेटियों के भी लिये हाथ उठाओ मंज़र

सिर्फ अल्लाह से बेटा नहीं माँगा करते


- मंज़र भोपाली

बदहवासी...




किधर को जायेंगे अहल - ऐ - सफ़र नहीं मालूम



वो बदहवासी है अपना ही घर नहीं मालूम





मेरे खुदा मुझे तौकीद दे मोहब्बत की



दिलों को जीतने वाला हुनर नहीं मालूम





हम अपने घर में भी महफूज़ रह नहीं सकते



के हमको नीयत - ऐ - दीवार - ओ - दर नहीं मालूम





हमेशा टूट के माँ बाप की करो खिदमत



हैं कितने रोज़ ये बूढ़े सज़र नहीं मालूम

- मंज़र भोपाली

इत्तेफ्फाक या साज़िश ...



हमारी जेब से जब भी कलम निकलता है


सियाह शब् के यजीदों का दम निकलता है

तुम्हारे वादों का कद भी तुम्हारे जैसा है

कभी जो नाप के देखो तो कम निकलता है



ये इत्तेफ्फाक है मंज़र या कोई साज़िश है


हमेशा क्यूँ मेरे घर से ही बम निकलता है



- मंज़र भोपाली

Monday, July 12, 2010

अहल - ऐ -सफ़र ...


किधर को जायेंगे , अहल - ऐ -सफ़र नहीं मालूम

वो बदहवासी है, अपना ही घर नहीं मालूम


- मंज़र भोपाली

Saturday, July 10, 2010

ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है...



मत कहो आकाश में कुहरा घना है
ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है


सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से
क्या करोगे सूर्य को क्या देखना है ?


इस सड़क पर इस कदर कीचड बिछी है
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है


पक्ष और प्रतिपक्ष संसद में मुखर है
बात इतनी है की कोई पुल बना है


रक्त वर्षों से खून में खौलता है
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है


हो गई है घाट पे पूरी व्यवस्था
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है


दोस्तों अब मंच पर सुविधा नहीं
आजकल नेपथ्य में सम्भावना है



- दुष्यंत कुमार


Thursday, May 27, 2010

आकांक्षा...

जग में प्रेम की ज्योति जला दूँ मैं

जग में प्रेम की ज्योति जला दूँ मैं

पुण्य धरा पर सुंदरतम

प्रेम प्रकाश फैला दूँ मैं

जन-मन-हिय में अनुपम

स्वर्गिक आभास दिला दूँ मैं


जन-जन जो शोषित, पीड़ित
पंक दलित हर सुविधा रहित
आशादीप उस दिल में जगाकर
जीवन प्रीती का राग दूँ मैं


प्रीती के हर रूप हर रागिनी में
जीवन ध्येय की श्वेत रौशनी में
जीवन का नैसर्ग दिखाकर
राह में उसके उत्साह भर दूँ मैं


जग में प्रेम की ज्योति जला दूँ मैं

जग में प्रेम की ज्योति जला दूँ मैं

पंकज बोरा





Thursday, May 6, 2010

शायरी...

हमने तो चलायी थीं रेत पे उंगलियाँ

न जाने ... कैसे उनकी तस्वीर बन गयी

Saturday, April 17, 2010

ख्वाहिश ...


वो नींद की हल्की साज़िश थी ?


या दिल की कोई ख्वाहिश थी ?


जब मैंने तुमको देखा था


जब मैंने तुमको जाना था


तुम दूर हो कर भी पास हुए


इन आँखों का एक ख्वाब हुए


तुमसे जब-जब मैं मिलती हूँ


तो हर दम सोचा करती हूँ


कोई ख्वाब हो या एक आस हो तुम


मेरे होने का एहसास हो तुम


सच में गर तुमसे कह दूं मैं


शायद अब सबसे खास हो तुम


तुम न जाना अब दूर कहीं


मेरे बनके रहना सदा यूँही


एक खुशबु हर सू फैली है


रंगों में अब रंगीनी है


शबनम की बूँदें पत्तों पर


गिर कर मुझसे ये कहती हैं


वो नींद की हल्की साज़िश थी ?


या दिल की कोई ख्वाहिश थी ?



शीबा परवीन

Tuesday, April 13, 2010

कौन हूँ मैं...?

कौन हूँ क्या ये जानती हूँ मैं ?

शायद खुद ही को नहीं पहचानती हूँ मै !

कौन हूँ ... ?

मात-पिता से नाम मिला है ,

खान-पान-आराम मिला है,

समाज में स्थान मिला है,

किन्तु सोच रही हूँ मैं,

क्या खुद की है पहचान कहीं पर ?

लेकर यही प्रश्न हृदय में,

अपनी राह बनाती हूँ मैं ,

कौन हूँ क्या ...?

मेरी भी एक राह अलग हो,

जग में मेरा स्थान अलग हो,

पर,

क्या खुद को परिचय जानती हूँ मैं ?

कौन हूँ क्या ... ?

देख के सब कयास लगाते,

मेरा आईना मुझे दिखाते ,

मुझे बदलने को तत्पर सब,

अपनी -अपनी राह बताते,

क्यूँ वे मुझे राह दर्शाते,

भ्रमित होते राहों से !

क्या खुद की राह जानते हैं वे ?

पर अंतर्मयी राह बनाती,

लक्ष्य सिमरती पग बढाती,

यात्रा का आनंद उठाती हूँ मैं ,

हाँ अब खुद को पहचानती हूँ मैं ...!

आकांक्षा शर्मा

http://www.jhanjhawaat.blogspot.com/

Friday, April 9, 2010

इन्तेहाँ...

ज़ब्त की इन्तेहाँ भला और क्या होगी फ़राज़ ?

वो हमीं से लिपट के रोये किसी और के लिए ...!

अहमद फ़राज़

मासूमियत...


जी चाहता है उन्हें मुफ्त में जान दे दूँ फ़राज़,

ऐसे मासूम खरीदार से क्या लेना - देना ...!

अहमद फ़राज़

Monday, April 5, 2010

दूर है मंजिल नहीं...

दूर है मंजिल नहीं; ग़र उमंग है प्राण में,

ध्येय पथ पर, बस अडिग राही सदा चलता रहे...


ज़रा खेल पथ के शूल से, छूते ही अनुभूति होगी फूल की.

चिलचिलाती धूप होगी चांदनी, वायु भी होगी तेरे अनुकूल ही,

राह हर मंजिल तेरी वरदान तुझको है यही,

मार्ग का हर एक पत्थर पैर नित मलता रहे,

ध्येय पथ पर...


बाल; यौवन और वृद्धा; श्वांस के, ये तीन हैं डग; जिंदगी की चाल के,

सौगंध तुझको; सोच मत आराम की, अभी पोंछना भी; मत पसीना भाल से.

श्वांस पथ के प्राण राही को दिखाने रास्ता,

हर मनुज 'आकाश दीपक' सा सदा जलता रहे,

ध्येय पथ पर...


बन रहे हैं जो मसीहा शांति के, हैं छिपाए आग दिल में बैर की.

ताल-सुर सब एक लय में हैं बंधे, गा रहे मुख से मगर हैं भैरवी.

एक लय हो जाये हमारी रागिनी बस इसलिए,

अलगाववादी राग का हर साज ही रीता रहे,

ध्येय पथ पर...


लूटने की चाह से प्रतिदिन सभी को, घूमते हैं जो वो बस हैवान हैं.

मेहनत की इक रोटी को भी; जो प्यार से, बांटकर खाते; वही इंसान हैं.

यह सृष्टि ही संपत्ति है; हर कर्मरत इंसान की,

कर्महीन इंसान; अपने हाथ बस मलता रहे,

ध्येय पथ पर...


देवास दीक्षित

Saturday, April 3, 2010

सजा बन जाओ तुम...

दिल के रंजो-ग़म की दवा बन जाओ तुम...


या दिल के ज़ख्मो को जो दे सुकूं,

एक बार ऐसी हवा बन जाओ तुम...


इस कदर चाहा है तुमको रात-दिन,

मेरी रूह में बसकर, मेरे ख़ुदा बन जाओ तुम...


कभी ख्वाबों में, यादों में क्यों आते हो तुम,

आना है तो, मेरी यादों का काफिला बन जाओ तुम...


जाने से तेरे, रुक सा गया है सब कुछ,

जो थम गया है, वो सिलसिला बन जाओ तुम...


हो सके तो एक बार फिर चाहो मुझे इतना,

दुनिया के लिए मोहब्बत की, इन्तहां बन जाओ तुम...


तेरे आने की उम्मीद में कब से बैठे है हम,

ख़त्म करदे जो मेरी आस, ऐसा ज़लज़ला बन जाओ तुम...


कुछ ऐसा करो मेरे एहसासों के साथ,

रोते-रोते हँसने की अदा बन जाओ तुम...


तोड़ना है तो मेरे दिल को इस कदर तोड़ो,

मेरी वफ़ाओ की सजा बन जाओ तुम...

हिमांशु डबराल

महफ़िल...

महफ़िल सजी है आज कवि सम्मलेन की...

आप के हमारे भाव दिल के मिलेंगे आज

फूट फूट बरसेंगी रस की फुहारें आज

छैल-सुर-ताल आज शोभा बढ़ाएंगी

सजदा करेगी रात चांदनी गगन की

महफ़िल सजी है ...

जयकरन सिंह भदौरिया 'जय'