
स्वस्थ तन
और
स्वस्थ मन
पर्याप्त धन
भावनाओं की अगन
और
वेदनाओं की चुभन
ख्वाहिशों की भीड़ में
ज़िन्दगी का सूनापन
सुखद जीवन
विकल मन
क्यूँ ?
कभी सोचा नहीं
कि
मन का भी होता है... मन ||
जयकरन सिंह भदौरिया 'जय'
स्वस्थ तन
और
स्वस्थ मन
पर्याप्त धन
भावनाओं की अगन
और
वेदनाओं की चुभन
ख्वाहिशों की भीड़ में
ज़िन्दगी का सूनापन
सुखद जीवन
विकल मन
क्यूँ ?
कभी सोचा नहीं
कि
मन का भी होता है... मन ||
जयकरन सिंह भदौरिया 'जय'
किधर को जायेंगे अहल - ऐ - सफ़र नहीं मालूम
वो बदहवासी है अपना ही घर नहीं मालूम
मेरे खुदा मुझे तौकीद दे मोहब्बत की
दिलों को जीतने वाला हुनर नहीं मालूम
हम अपने घर में भी महफूज़ रह नहीं सकते
के हमको नीयत - ऐ - दीवार - ओ - दर नहीं मालूम
हमेशा टूट के माँ बाप की करो खिदमत
हैं कितने रोज़ ये बूढ़े सज़र नहीं मालूम
- मंज़र भोपाली
हमारी जेब से जब भी कलम निकलता है
सियाह शब् के यजीदों का दम निकलता है
तुम्हारे वादों का कद भी तुम्हारे जैसा है
कभी जो नाप के देखो तो कम निकलता है
ये इत्तेफ्फाक है मंज़र या कोई साज़िश है
हमेशा क्यूँ मेरे घर से ही बम निकलता है
- मंज़र भोपाली
वो बदहवासी है, अपना ही घर नहीं मालूम
- मंज़र भोपाली
जग में प्रेम की ज्योति जला दूँ मैं
जग में प्रेम की ज्योति जला दूँ मैं
पुण्य धरा पर सुंदरतम
प्रेम प्रकाश फैला दूँ मैं
जन-मन-हिय में अनुपम
स्वर्गिक आभास दिला दूँ मैं
जन-जन जो शोषित, पीड़ित
पंक दलित हर सुविधा रहित
आशादीप उस दिल में जगाकर
जीवन प्रीती का राग दूँ मैं
प्रीती के हर रूप हर रागिनी में
जीवन ध्येय की श्वेत रौशनी में
जीवन का नैसर्ग दिखाकर
राह में उसके उत्साह भर दूँ मैं
जग में प्रेम की ज्योति जला दूँ मैं
जग में प्रेम की ज्योति जला दूँ मैं
पंकज बोरा
कौन हूँ क्या ये जानती हूँ मैं ?
शायद खुद ही को नहीं पहचानती हूँ मै !
कौन हूँ ... ?
मात-पिता से नाम मिला है ,
खान-पान-आराम मिला है,
समाज में स्थान मिला है,
किन्तु सोच रही हूँ मैं,
क्या खुद की है पहचान कहीं पर ?
लेकर यही प्रश्न हृदय में,
अपनी राह बनाती हूँ मैं ,
कौन हूँ क्या ...?
मेरी भी एक राह अलग हो,
जग में मेरा स्थान अलग हो,
पर,
क्या खुद को परिचय जानती हूँ मैं ?
कौन हूँ क्या ... ?
देख के सब कयास लगाते,
मेरा आईना मुझे दिखाते ,
मुझे बदलने को तत्पर सब,
अपनी -अपनी राह बताते,
क्यूँ वे मुझे राह दर्शाते,
भ्रमित होते राहों से !
क्या खुद की राह जानते हैं वे ?
पर अंतर्मयी राह बनाती,
लक्ष्य सिमरती पग बढाती,
यात्रा का आनंद उठाती हूँ मैं ,
हाँ अब खुद को पहचानती हूँ मैं ...!
आकांक्षा शर्मा
ज़ब्त की इन्तेहाँ भला और क्या होगी फ़राज़ ?
वो हमीं से लिपट के रोये किसी और के लिए ...!
अहमद फ़राज़
जी चाहता है उन्हें मुफ्त में जान दे दूँ फ़राज़,
ऐसे मासूम खरीदार से क्या लेना - देना ...!
अहमद फ़राज़
महफ़िल सजी है आज कवि सम्मलेन की...
आप के हमारे भाव दिल के मिलेंगे आज
फूट फूट बरसेंगी रस की फुहारें आज
छैल-सुर-ताल आज शोभा बढ़ाएंगी
सजदा करेगी रात चांदनी गगन की
महफ़िल सजी है ...
जयकरन सिंह भदौरिया 'जय'