किधर को जायेंगे अहल - ऐ - सफ़र नहीं मालूम
वो बदहवासी है अपना ही घर नहीं मालूम
मेरे खुदा मुझे तौकीद दे मोहब्बत की
दिलों को जीतने वाला हुनर नहीं मालूम
हम अपने घर में भी महफूज़ रह नहीं सकते
के हमको नीयत - ऐ - दीवार - ओ - दर नहीं मालूम
हमेशा टूट के माँ बाप की करो खिदमत
हैं कितने रोज़ ये बूढ़े सज़र नहीं मालूम
- मंज़र भोपाली
2 टिप्पणियाँ:
शानदार ग़ज़ल
हमेशा टूट के माँ बाप की करो खिदमत
हैं कितने रोज़ ये बूढ़े सज़र नहीं मालूम
-मंजर भाई को पढ़वाने का आभार.
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