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Wednesday, July 28, 2010

माँ...


इस कोने से लेकर

उस कोने तक

पूरे घर को

दिन में कई बार

अपने हाथों से

सहलाने वाली माँ

थमकर बैठती हो जब

तब गेहूं बीनने के बहाने

सींचती हो अपने हाथों से

दाने - दाने में एक मिठास



उलझे - उलझे बालों वाली माँ ,

कैसे कर लेती हो ,

इतनी सुलझी - सुलझी बातें ?

कि कई बार

निरुत्तर हो जाने के बाद भी

कितना सुकून से भरा - भरा

दिखाई देता है बाबूजी का चेहरा



माँ , सारी रात तुम

बाबूजी की आहटों पर

कान लगाए - लगाए

ऊँघते - ऊँघते ही

कैसे कर लेती हो

नींद लेने का उपक्रम ?

और सुबह फिर

खिल - खिल जाती हो

किसी ताजातरीन

फूल की तरह



माँ, सचमुच कितने

आह्लादित होते होंगे बाबूजी

दादी के सामने

तुम्हें इस पकी उम्र में भी

लम्बा - सा घूँघट निकालकर

किसी नववधू की तरह

सकुचाते हुए देखकर



माँ, ओस की बूँद - सी तुम

कितनी भली लगती हो

परिवार के पात पर

घर के आँगन में लगा

तुलसी का थान

शाद तुम्हे देख - देख कर ही

फल - फूल रहा है



- आचार्य संजय वरुण

5 टिप्पणियाँ:

vandana gupta said...

बेहतरीन जज़्बात्…………………माँ के हर अह्सास को संजो दिया है………………अत्यंत सुन्दर्।

Ra said...

बहुत सुन्दर और भावभीनी रचना लाये हो मित्र ...आभार !

Udan Tashtari said...

माँ - बस यही तो है. बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना.

Urmi said...

ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना ! माँ के बारे में जितना भी कहा जाए कम है! दिल को छू गयी आपकी ये बेहतरीन रचना! बधाई!

Unknown said...

Beautiful