उस कोने तक
पूरे घर को
दिन में कई बार
अपने हाथों से
सहलाने वाली माँ
थमकर बैठती हो जब
तब गेहूं बीनने के बहाने
सींचती हो अपने हाथों से
दाने - दाने में एक मिठास
उलझे - उलझे बालों वाली माँ ,
कैसे कर लेती हो ,
इतनी सुलझी - सुलझी बातें ?
कि कई बार
निरुत्तर हो जाने के बाद भी
कितना सुकून से भरा - भरा
दिखाई देता है बाबूजी का चेहरा
माँ , सारी रात तुम
बाबूजी की आहटों पर
कान लगाए - लगाए
ऊँघते - ऊँघते ही
कैसे कर लेती हो
नींद लेने का उपक्रम ?
और सुबह फिर
खिल - खिल जाती हो
किसी ताजातरीन
फूल की तरह
माँ, सचमुच कितने
आह्लादित होते होंगे बाबूजी
दादी के सामने
तुम्हें इस पकी उम्र में भी
लम्बा - सा घूँघट निकालकर
किसी नववधू की तरह
सकुचाते हुए देखकर
माँ, ओस की बूँद - सी तुम
कितनी भली लगती हो
परिवार के पात पर
घर के आँगन में लगा
तुलसी का थान
शाद तुम्हे देख - देख कर ही
फल - फूल रहा है
- आचार्य संजय वरुण
5 टिप्पणियाँ:
बेहतरीन जज़्बात्…………………माँ के हर अह्सास को संजो दिया है………………अत्यंत सुन्दर्।
बहुत सुन्दर और भावभीनी रचना लाये हो मित्र ...आभार !
माँ - बस यही तो है. बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना.
ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना ! माँ के बारे में जितना भी कहा जाए कम है! दिल को छू गयी आपकी ये बेहतरीन रचना! बधाई!
Beautiful
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